Monday, March 15, 2010

सामाजिक सद्भाव की नगरी ललितपुर

 सामाजिक सद्भाव की नगरी ललितपुर में यूं तो सभी धर्मो के लोग आपसी भाई-चारा और प्रेम सौहार्द के अटूट बंधन में कुछ इस तरह बंधे है कि एक-दूसरे की छोटी-बड़ी िशकायतें आपस में कह सुनकर ही नज़रअन्दाज कर देते है। किसी भी धर्म के अनुयायी को दूसरे धर्म की आलोचना करने में झिझक ही नहीं गिलानी भी महसूस होती है क्योंकि उसे श्रृद्धा से मानने वाले हमारे ही बीच रहते है और हम सब भाई बंधु के रिस्ते में बंधे है। परन्तु हमारे बीच जब कभी कोई बड़ी वजह धर्म को लेकर प्रहार करने लगे तो निश्चय ही हम धर्म गुरूओं की शरण लेते आये है। यही तरीका भी है लेकिन जब कोई धर्म गुरू महात्मा ही आघात का कारण बन जाए तो कहां जाएं, किससे कहें, या घुटते रहे और बस घुटते रहें। जी हां मैं तुच्छ प्राणी उन महान् मुनियों को आरोपित करने पर मजबूर हुआ हूं जो मेरी भी अटूट श्रृद्धा के पात्र है मगर एक मात्र वजह उनका नगर में वेपर्दा भम्रण मुझे सामाजिक दृिश्ट से उचित नहीं लगता , किससे कहूं र्षोर्षो कौन हैर्षोर्षो जो समझायेगा इसे उचित समझने की तरकीब! मेरा ध्यान जाता है केवल मुनि श्री के चरणों में केवल वहीं मेरा मार्ग दशZन कर सकते है मगर मेरा सम्पूर्ण मनोविज्ञान मेरे प्रश्न को इतना गलत ठहराता है कि सीधा कहने की हिम्मत जुटा पाना शायद मेरे वश में नहीं। यही कारण है जो इसे इस तरह समाज के समक्ष व्यक्त कर रहा हूं। ऐसा नहीं है कि यह जिज्ञासा केवल मेरी ही है जनपद का शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसने इस विशय पर आज तक तर्क-वितर्क न किए हो। प्रतिदिन भ्रमण काल में स्वयं मुनि श्री ने भी इस जिज्ञासा को घुरती, शर्माती, या झुकती निगाहों में पढ़ा होगा। ऐसा मेरा अनुमान है अपनी जिज्ञासा को व्यक्त करने में कुतर्क करने की भूल कर सकता हूं। जिसे क्षमा करने की कृपा करें। मेरी जिज्ञासा सभी धर्म के अनुयायियों के समक्ष प्रस्तुत है। मुनि स्वरूप यदि जैसा है आवश्यक है तो क्या उनका नगर भ्रमण न होकर मन्दिर परिधि में सीमित नहीं रह सकता। क्योंकि नगर में सभी धर्मो के मानने वाले रहते है जबकि मन्दिर में तो केवल एक धर्म के ही अनुयायी उस समय होगें अथवा वह लोग होगें जो दशZन लाभ लेना चाहेगें। ऐसा सुना है कि उक्त स्वरूप के पूर्व मुनि श्री एक वस्त्र धारण की अवस्था में रहते थे। क्या सर्व समाज के हित में कुछ समय के लिए (केवल भ्रमण काल के वक़्त) पूर्व अवस्था में आना त्याग की परिभाशा में स्वीकार हो सकता है। उक्त निवेदनों के सापेक्ष मेरे तर्क जो शायद कुतर्क हो। यह है कि आज त्याग की पराकश्ठा पर कर चुके मुनि श्री या वर्ग विशेश के मेरे बंधु-बंाधवों का ध्यान क्या इस ओर गया है कि जब सब कुछ त्याग दिया फिर उदर पूर्ति में नगर की भीतरी सीमा ही आवश्यक क्यों र्षोर्षो या कीमती भवनों में प्रवेश वर्जित क्यों नहीं र्षोर्षो यदि इस का जबाव यह है कि उपरोक्त सब कुछ श्रृद्धालुओं की अनुनय विनय के कारण होता है न कि मुनि श्री की इच्छानुसार ,तो क्या यह विनय श्रृद्धालुओं की सीमित स्वार्थी सोच का दशZन नहीं कराती। और क्या अनुनय विनय में एक विनय और शामिल नहीं हो सकती, यदि ऐसा है तो न्याय धर्म गुरू ही कर सकते है। दूसरी बात में तर्क यह है कि यदि त्याग की पराकश्ठा की ओर अग्रसित मुनि श्री नगर सीमा में समाज कल्याण या प्राणी मात्र के कल्याण की भावना से ही आते है तो क्या एक वस्त्र धारण उनकी भावना को आहत कर सकता है।

मोह माया के संसार में “वास तो सभी ले रहे है फिर चाहें वह साधारण मनुश्य हो , अथवा विलक्षण प्रतिभा के धनी और लोक -परलोक की जानकारी प्राप्त मुनि श्री जब मायावी संसार में विरक्त भी रह सकते है और संासारिकता उनकी विरक्ति को क्षति ग्रस्त नहीं कर पाती तब तन पर वस्त्र हैं अथवा नहीं क्या फर्क पड़ता है। कहीं यह मात्र आकशZण में सहायक तो नहीं , ऐसा सुना है कि संसार में विपरीत का आकशZण है जैसे चुम्बक के विपरीत दो सिरे ही परस्पर आकर्शित होते है सामान सिरों को यदि पास में लाया जाता है तो प्रति कर्शित ही होते है इसी प्रकार संसार में विपरीत लिंग का आकशZण है इसी क्रम में कहीं कपड़े के व्यापारी और वस्त्र विहीन मुनि श्री का आकशZण तो नहीं । वाणी की अति किसी तपस्वी को रूश्ट न कर दें इसलिए क्षमा चहता हूं। मेरे तकोZ पर मनन और चिन्तन से अन्तत: लाभ की ही संभावना है यदि मेरी बातें सत्यता के ओत-प्रोत है तो सर्व समाज की कुंठा शान्त होगी। और यदि ऐसा नहीं तो सर्व समाज कि कुंठा का मुनि श्री अपनी ज्ञान ऊर्जा से समाधान करें ऐसी मेरी प्रार्थना है।

यह तो सभी ने जाना और समझा है कि मुनि श्री किसी वर्ग विशेश के लिए नहीं है अभी हाल में उन्होंने सभी समाज से कुछ अपीले कि थी जिसका सर्व समाज ने पूरे मन से आदर किया था और बहुतों ने उन कल्याणकारी प्रस्तावों को आत्मसात भी किया , तो क्या सर्व समाज की एक प्रार्थना मुनि श्री स्वीकार नहीं करेगें।

जब एक समाज विशेश के लोग मांसाहार जो उनके लिए खाद्य श्रृंखला है को गलत मान सकते है और इसे सिद्व किया जा सकता है




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Tuesday, March 9, 2010

इन सवणोZ के अत्याचार को रोकने में बहुत हद तक डां0 अम्बेडकर साहब ने प्रयत्न किये



अम्बेडकर का जन्म सामाजिक रूप से दलित कहे जाने वाली जाति में हुआ था। उन्होंने पिश्चमी तज़Z पर तालीम हासिल की। उनका नज़रिया बेहद तािर्कक मगर मिज़ाज एकदम विद्रोही था। उन्होंने समाज के उस तबके को कुशल नेतृत्व प्रदान किया जो सदियों से अभिशप्त था। शूद्र कहलाया जाता था। परहेज किया जाता था, उनके स्पशZ से उनकी परछाई से। यहां तक कि उनके मुंह से निकले बोल भी अशुभ समझे जाते थे। इस अछूत समुदाय को तत्कालीन वर्ण व्यवस्था और राजशाही ने कितना उत्पीड़ित किया होगा, इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि शूद्रों को पशु पालने और कुछ विशेश धातुओं के आभूशण तक पहनने से रोका जाता था। वे नाइयों और धोबियों की सेवाएं भी नहीं ले सकते थ। जब सार्वजनिक कुओं , तालाबोें और स्कूलों तक शूद्रों की पहुंच नहीं थी, तो मिन्दरों की बात ही क्या की जाए। स्थिति यह थी कि शूद्र थे तो भारतीय, पर वे भारत की सांस्कृतिक विरासत का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते थे। पृथकीकरण ने उनको सामाजिक रूप से मजलूम, आर्थिक रूप से मजबूर और राजनीतिक रूप से महकूम बना कर रखा था। वे लोक सेवाओं में विशेशकर प्रशासन, पुलिस और सेना में भर्ती नहीं किए जाते थे। लिहाजा घूम फिरकर उनकों अपने पैतृक पेशे पर ही सन्तोश करना पड़ता था। यानी एक दलित जिस हाल में पैदा होता , उसी हाल में मर जाता। इसी हाल में अनेक पीढ़ियां आत्म सम्मान पाने और अपनी हालत में सुधार की तमन्ना लिए दुनियां से विदा होती थी। ऐसी मुिश्कल परिस्थितियों में दलित समाज को अपने अभ्युत्थान के लिए किसी ऐसे मसीहा की जरूरत थी। जो उनकी आंख , जुबान और लाठी बन सके।

अम्बेडकर ने दलित समाज को ऐसे ही मोड़ पर करिश्माई नेतृत्व प्रदान कर इस कमी को पूरा किया, क्योंकि उनसे पहले जाति विरोधी आन्दोलन मुख्य रूप से दलित कल्याण पर ही केिन्द्रत था। मगर अम्बेडकर ने इसका नाकाफी समझते हुए इस बात पर बल दिया कि सामिाजक व्यवस्था में परिवर्तन तभी ला सकते हैं। जब दलित समुदायों को भी बराबर के राजनीतिक अधिकार प्राप्त हों। इस प्रकार पहली बार अम्बेडकर ने छुआछूत की समस्या और अछूतों के लिए राजनीतिक अधिकारों को मुख्य कार्यसूची में शमिल किया था। अम्बेडकर ने भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान यह महसूस कर लिया था कि ब्रिटिश राज के खात्मे के बाद कम से कम राजशाही या सामन्तशाही सत्ता के रूप में पुनस्Zथापित नहीं हो सकेगी और ऐसा हुआ भी। जब राश्ट्र स्वतन्त्र हुआ तो हमने लोकतन्त्र केा चुना। लोकतन्त्र को स्थापित करना बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य था, क्योंकि समाज कुनबों -कबीलों , जाति-बिरादरियों और अनेक पन्थ -सम्प्रदायों में बंटा हुआ था। ऐसा समाज लोकतन्त्र को सिर्फ ढो ही सकता था। बिना सामाजिक न्याय के लोकतन्त्र अपने मकसद को नहीं पा सकता था, क्योंकि जिस चीज पर लोकतन्त्र की बुनियाद टिकी है वह हमारे पा बिल्कुल नहीं थी, यानी कि सामाजिक समरसता। इन परिस्थितियों में एक नव स्वतन्त्र राश्ट्र राज्य के रूप में स्थापित करना टेढ़ी खीर साबित होता। इन्हीं संभावनाओं के मद्देनज़र अम्बेडकर ने अपना सारा जीवन सामाजिक न्याय की स्थापना करने के प्रयास में खपा दिया। ऐसा करके एक और जहां उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से दलित समाज को आत्म सम्मान दिलाने का मौका दिलाया तो परोक्ष रूप से वर्ण व्यवस्था के निर्देशन तले चलने वाली प्रजातान्त्रिक व्यवस्था को टूटने से भी बचाया। अम्बेडकर ने सामाजिक न्याय से जुड़े हर पहलू पर गम्भीर चिन्तन किया।

डां. अम्बेडकर अपने पूरे जीवन काल में दलित मुक्ति को लेकर संघशZरत रहे। वे सामाजिक विचारों में वह स्वतन्त्रता , समानता और बंधुत्व के जबरदस्त हिमायती थे। यह स्वतन्त्रता, समानता और बंधुत्व पूरी इन्सानियत के लिए संप्रेशणीय बने, और उनकी जिन्दगी का आधार बने, ऐसा वह चाहते थे। इससे दलित जातियां भी इन मूल्यों का स्वाद चख सकेंगी और सदियों से पड़ी उन पर गुलामी की चादरें धीर-धीरे कटती जाएंगी। आर्थिक विचारों में वह पूर्ण राश्ट्रीयकरण के हिमायती थे। वह चाहते थे कि सारे उद्योग तथा सारी खेती किसानी सरकारी क्षेत्र में नियन्त्रित रहे। सरकार श्रमिकों और अधिकारियों की नियुक्ति करे। इसका तत्काल फायदा दलित जातियों को ही ज्यादा मिलता क्योंकि वे ही सदियों से श्रम-व्यवस्था से जुड़े थे। कृशि कार्यो और उद्योग जगत को मिलाकर वह एक बड़े श्रमिक वर्ग का निर्माण करना चाहते थे, जिससे सामन्ती तथा पूंजीवादी तत्व नश्ट हो जाएं। इससे स्वाभाविक रूप से, सामाजिक स्तर पर ब्राह्मणवादी परांपरा भी ध्वस्त होती। जब खेती व उद्योगों में एक साथ ब्राह्मण व दलित श्रमिक बनकर काम करेंगे तो दोनों के बीच मंआ एक वणीZय मैत्री का विकास हो जाएगा। वेतन की समानता वर्गीय चेतना पैदा कर देती है। दुर्भाग्यवश उनके आर्थिक विचारों को उतना महत्व नहीं मिल सका। सामाजिक विचारों को तो उन्होंने भारतीय संविधान में समाहित करा लिया था किन्तु आर्थिक विचारों को संविधान में नहीं जोड़ पाए।





5 दिसम्बर 1931 को डां0 अम्बेडकर लन्दन से अमेरिका गए। वहां से वह 29 जनवरी 1932 को स्वदेश लौटे

डां0 अम्बेडकर की शायद पहली जीत थी क्योंकि जिस उदद्ेश्य को पूरा करने के लिए उन्होंने संघशZ किया, वह पूरा हो गया। अछूतों को भी वे अधिकार प्राप्त हो गए थे जो सवणोZ को प्राप्त थे।

ऐसा ही चाहते थे डां0 अम्बेडकर और उन्होने जो चाहा था वह उन्हें मिल गया। उस दिन उनसे हजारों नहीं लाखों दलित लोग मिलने आए। डां0 साहब सभी से गले मिले। कोई ऐसा अछूत नहीं था जिसने डां0 साहब से मिलकर अपना हदय नहीं जोड़ा था। परन्तु डां0 साहब थे कि उनकी आंखों में आंसू छलछला आए थे। कुछ लोगों ने कहा - वे पे्रम के आंसू थे, और कुछ बोले वे विजय के आंसू थे।
20 सितम्बर , 1932 को गांधी ने भूख हड़ताल कर दी। इससे सारा देश चिन्ता में डूब गया । बात छोटी थी और बड़ी भी। सचमुच यह बिडम्बना थी कि गांधी जैसे महापुरूश जो अछूतों और दलितों में उत्थान का कार्य कर रहे थे, वे भी अछूतों को अलग प्रतिनिधित्व की खिलाफत कर रहे थे।
इतना हि नहीं, उन्होंने ब्रिटिश प्रधानमन्त्री को धमकी भरा पत्र भी लिखा- यदि अछूतों के उक्त अधिकार जा ब्रिटिश प्रधानमन्त्री ने दिये है, वापस नहीं लिये गए तो मैं तब तक अनशन करता रहूंगा जब तक उक्त अधिकार वापस नहीं लिए जाते।
परन्तु डां0 साहब अपने विचारों पर दृढ़ थे। उन्होंने अपार जनता के सामने दो दूक शैली में सिंह की सी गर्जना करते हुए कहा गांधी जी के प्राणों को बचाने की हर सम्भव कोिशश की जानी चाहिए। पर मुझसे यह आशा न रखी जाए कि मैं दलितों और अछूतों के हित को छोड़ दूंगा। गांधी को अपनी बात याद करनी चाहिए। पूना समझौते में उन्होने स्वयं अछूतों को अलग से प्रतिनिधित्व दिए जाने का समर्थन किया था, फिर यह विरोध क्यों किया जा रहा हैर्षोर्षो अलग से प्रतिनिधित्व मिल जाने पर सारे अछूत हिन्दू धर्म के अडग ही नहीं बने रहेगे, इसमें जरा सी भी शंका करने की बात नहीं।
डां0 अम्बेडकर के शब्द बिल्कुल स्पश्ट थे। परन्तु कांग्रेसी नेताओं को नहीं जंच रहे थे। वे गांधी के मन की बात न समझौते हुए भी उनके स्वर से स्वर मिलाना चाहते थें अत: 20 सितम्बर 1932 को एक घिनौने नाटक खेलने का प्रसास किया गया। यह दिखाने का प्रयास किया गया कि गांधी और कांग्रेस को अलग से अछूतों के लिए प्रतिनिधित्व देने पर आपत्ति है। पर सुरक्षित स्थान देने पर तैयार है।
डां0 अम्बेडकर के एक विश्वसनीय व्यक्ति ने यह खबर डां0 साहब तक पहुंचाई। सुनकर डां0 साहब के कनपटे लाल हो गये। उन्होंने हुंकार भरते हुए कहा`- इस नाटक का चाहे में खलनायक समझा जाऊं, लेकिन जिस बात को मैं अछूतों के हित में समझता हूं। उससे टस से मस नहीं हो सकता। उसे मैं नहीं छोड़ सकता।
घड़ी बहुत निकट थी। स्थिति ऐसे मोड़ पर आकर खड़ी हो गई थी जिसे बहुत नाजुक कहा जा सकता था। अब चारों ओर से गांधी जी के प्राणों की रक्षा के लिए डां0 साहब पर दबाव डाला जाने लगा। डां0 साहब बडे़ धर्म संकट में पड़ गए- जिन अछूतों के हित के लिए उन्होंने इतना बड़ा काम किया है, उसे वे अपने हाथों किसी प्रकार वापस लेर्षोर्षो यदि वे देर करते है तो गांधी के प्राण संकट में पड़ सकते हैर्षोर्षो
देश में एक प्रकार से दोहरा शासन होने लगा । महाराश्ट्र में तो कांग्रेसी और अंग्रेजी शासकों के कारण मिल मालिक मजदूरों पर अत्याचार करने लगे। मजदूरों ने इसके विरोध में जगह-जगह पर गोिश्ठयां कीं, परन्तु उनकी सुनने वाला कौन था र्षोर्षो अन्त में वे डां0 अम्बेडकर की शरण में पहुंचे । मजदूरों ने उनसे कहा- डाक्टर साहब , ये अंग्रेज और कांग्रेसी तो हमें मिटाकर छोडेंगे। हमारे ऊपर अत्याचार , शोशण और दमन के कोडे बरसते जा रहे है। आप मिल मालिकों के विरूद्ध कदम उठाइये। हम सब आपके साथ है।
मिलों में कुछ पद ऐसे थे जिन पर अछूतों की नियुक्ति नहीं हो पाती थी। इतना ही नहीं अछूतों को रेलवे-स्टेशन पर कुली तक बनने नहीं दिया जाता था। यदि कोई अछूत सामान उठाता पाया जाता था तो उसकी खाल उधेड़ दी जाती थी। उसे दो-दो बून्द पानी तक के लिए तरसाया जाता था।
एक दिन ऐसा अवश्य आयेगा जब अछूत कहे जाने वाले व्यक्ति ऊंची कुर्सी पर बैठेगें और सवर्ण उनकी बातों को स्वीकार करेंगे। कौन कहता है कि अछूत का पलड़ा कमजोर हेर्षोर्षो कौन नहीं जानता है कि जिन्हें हम अछूत कहते है वे हमारे ही अंग हैर्षोर्षो क्या कोई अपने शरीर से किसी एक अंग को काटकर फेंक देता है र्षोर्षो जातीयता की उनकी परिकल्पना बड़ी विराट थी।
जब कभी डां0 अम्बेडकर अछूतों और दलितों की बात करते थे तो सवर्ण हिन्दूओं की आंखों से चिनगारियां छूटने लगती थी। वे ढेले उठाते और डां0 साहब की ओर उछाल देते थे। उस घायल अवस्था में भी डां0 अम्बेडकर साहब के मुंह से कराह नहीं फूटती थी। उलटे वे उनसे कहते थे- `इन पत्थरों में मेरी नहीं तुम्हारी पराजय छिपी हुई है। जिन पत्थरों से तुम मुझे घायल कर रहे हो, एक दिन उन्हीं को उठाकर आंखों से लगाओगे।
डां0 साहब ने ऐसे समय में अपना संघशZ शुरू किया था, जब अछूतोद्वार की सारी संभावनाये समाप्त हो चुकी थी। बड़ों-बड़ों के पैर डगमगाने लगे थे। विश्वास टूटकर आकाश में चला गया था और साहस धरती में गढ चुका था। परन्तु यह डाक्टर अम्बेडकर ही थे, जिन्होंने कांटेदार झांड़ियों , अडंगेदार मार्गो और बड़ी-बड़ी अडचनों को पार किया । वह अछूतों के अधिकारों की मशाल लेकर आगे ही बढ़ते रहे। इस मशाल से उन्होंने अछूतों के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक और शैक्षिक दीपों को प्रज्वलित किया। जिस समय वे दीप से दीप जलाते थे तो लोग उनकी लगन और भक्ति को तोज्जुब से देखते थे। उनके जलाए हुए दीपक आज तक जल रहे हैं, लोगों के हदयों में तो रोशनी जल रही हैं, बड़े-बडे़ नेतागण भी उस प्रकाश को बुझाने का साहस नहीं कर सके हैं।
किसी समय करोड़ों की संख्या में ये धरती पुत्र बस्ती से बाहर टूटी फूटी झोंपड़ियों में दु:ख से भरपूर नारकीय जीवन बिताते थे। अधिक मेहनत के बाद भी उन्हें दो जून भरपेट रोटी और साग नसीब नहीं होता था।
उन्हें कदम-कदम पर प्रताड़ना , उत्पीडन, दुत्कार और तिरश्कार मिलता था। उनकों दबी हुई, कुचली हुई अमानवीय जिन्दगी बितानी पड़ती थी। पति दिन भर मेहनत करने के बाद झोंपड़ी में घुसता तो उसे पता चलता कि पत्नी जमीन्दार के घर जूठन बटोरने गई है। उसका बालक िढबरी की धुआं भरी रोशनी में भूखा पड़ा होता। झोंपड़ी में मिट्टी का एक घड़ा , अलुमिनियम के दो चार बर्तन, टूटी-फूटी एक अदद खाट- यही सब धरोहर दिखाई देती, उस मजदूर को , जो दिनभर खून पसीना बहाकर घर में घुसता था। कभी-कभी तो उस दलित को , इससे भी कठिन परीक्षा का सामना करना पड़ता। वह अपने तीन चार वशZ के बेटे से पूछता- ` मां कहां गई तेरी र्षोर्षो बेटा जबाव देता-` जमीन्दार उसे उठाकर ले गया है।´
जब बात पुन: शूद्रों पर आ गई है तो मैं यही कहना चाहता हूंं कि शूद्र आर्यो की जाति से हैं। किसी समय में आर्य जाति में तीन वर्णव थे- ब्राहमण, क्षत्रिय और वैश्व। शूद्रों का चौथा वर्ण नहीं था। वे भारतीय आर्यो के क्षत्रिय वर्ण के आर्य थे। शूद्रों और ब्राहमण में बराबर लड़ाई रही और ब्राहमणों पर शूद्रों ने बहुत अत्याचार किए। ब्राहमणों ने शूद्रों के अत्याचार से तंग आकर और द्वेश भाव से शूद्र क्षत्रि-यत्व से गिरकर वैश्व वर्ण के नीचे एक चौथा वर्ण बन गया। इस सिद्वान्त पर विद्वानों के मत की उपेक्षा करनी चाहिए। यह सिद्वान्त मेरा मौखिक है और प्रचलित सिद्वान्त के विरोध में है। मेरा सिद्वान्त कहां तक ठीक है, यह उन पर निर्भर है जो विशय पर निर्णय कर सकते हैं। यदि समालोचक सच्चा है तो मुझे आशा है कि मेरा मत मान लेगा। कम से कम यह सच्चा कहेगा कि यह नया दृिश्टकोण है।

अपना पता न अपनी खबर छोड़ जाऊंगा

अपना पता न अपनी खबर छोड़ जाऊंगा



बे सािम्तयों की गर्द-ए-सफर छोड़ जाऊंगा






तुझसें अगर बिछड़ भी गया तो याद रख


चेहरे पे तेरे अपनी नज़र छोड़ जाऊंगा






ग़म दूरियों का दूर न हो पायेगा कभी


वह अपनी कुर्वतों का असर छोड़ जाऊंगा






गुजरेगी रात - रात मेरे ही ख्याल में


तेरे लिए मैं सिर्फ सहर छोड़ जाऊंगा






जैसे कि शम्आदान में बुझ जाये कोई शम्आ


बस यूं ही अपने जिस्म का घर छोड़ जाऊंगा






मैं तुझकों जीत कर भी कहां जीत पाऊंगा


लेकिन मुहब्बतों का हुनर छोड़ जाऊंगा






आंसू मिलेगें मेरे न फिर तेरे कह कहें


सूनी हर एक राह गुजर छोड़ जाऊंगा






सफर में अकेला तुझे अगले जन्म तक


है छोड़ना मुहाल , मगर छोड़ जाऊंगा






उस पार जा सकेगी तो यादें ही जायेगी


जी कुछ इधर मिला है इधर छोड़ जाऊंगा






ग़म होगा सबकों और जुदा होगा सबका ग़म


क्या जाने कितने दीद-ए - दर (भीखी आंख) छोड़ जाऊंगा






बस तुम ही याद रहोगें,ं कुरेदोगें तुम अगर


मैं अपनी राख में जो शरर(चिनगारी) छोड़ जाऊंगा






कुछ देरे को निगाह ठहर जायेगी जरूर

अफसाने में एक ऐसा खण्डर छोड़ जाऊंगा





कोई ख्याल तक भी न छू पायेगा मुझें

मैं चारों तरफ आठों पहर छोड़ जाऊंगा

गूंगा नहीं था मैं कि बोल नहीं सकता था


गूंगा नहीं था मैं कि बोल नहीं सकता था

जब मेरे स्कूल के मुझसे कई क्लास छोटे

बढे़गें से एक फार के लड़के ने मुझसे कहां

`` ओ-ओ मोरिय! ज्यादें विगडें मत ।

क्मीज कू पेंट में दवा के मत चल ´´

और मैनें चुपचाप अपनी कमीज

पैंट से बाहर निकाल ली थीं गूंगा नहीं था मैं

न अक्षम, अपाहिज था जड़ था

कि प्रतिवाद नहीं कर सकता थां उस लड़के को इस

अपमानजनक व्यवहार का लेकिन

अगर मैं बोल सकता जातीय अहं का सिहांसन डोल जाता

स्वर्ण छात्रों में जंगल की आग की तरह

यह बात फैल जाती कि ढे़ढ़ो का दिमाग चढ़ गया है

फिसल गया है कि एक चमार का लड़का

काफीपुरा के एक लड़के छोरे से अड़ गया है

आपसी मतभेदों को भुलाकर तुरन्त-फुरन्त स्कूल के

सारे स्वर्ण छात्र गोलबदं हो जाते और

ये ना अध्यापक ये होकिया ले -लेकर

दलित छात्रों पर हल्ला बोल देते

इस हल्ले में कई दलित छात्रों के

हाथ -पैर टुटते कई के सिर फूटते

और स्कूल परिसर के अन्दर

हगामा करने के जुर्म में

हम ही स्कूल से

रस्टीगेट कर दिये जाते।

शर्म के बारे में पूछता है कोई जब हमसे


हां कह देते है हम कि हमें भी आती है कभी-कभी

रिश्ता हमारा टूट चूका है वैसे तो शर्म से

पुराने सम्बंधों के आधार पर आ जाती है बस कभी-कभी

भीड़ में रहें तो कह देते है कि आती है शर्म

बाकी नज़रें चुरा-चुरा कर देख लेते है कभी-कभी

चाहते तो नहीं पर समय जब पूछता है हिसाब और

जमाना कहता है तो झांक लेते है गिरेवां में कभी-कभी


Tuesday, February 9, 2010

नन्ही कली- उसे भी खिलने दो

मत कुचलो नन्ही कली- उसे भी खिलने दो


और महकने दो अपने आंगन में



हम सभी ये बात जानते हे कि इस पृथ्वी की रचना में बिना नारी के कुछ भी सम्भव नहीं था इस रचना में जितना योगदान एक नर का है उतना ही योगदान नारी का भी है। क्योंकि जब तक नारी नहीं होगी तब तक एक परिवार की रचना व उसका विकास नहीं हो सकता। क्योंकि गृहस्वी रूपी गाड़ी के दो पहिये है एक नर और दूसरा नारी, इनमें से किसी एक के न होने से वह गाड़ी आगे नहीं बड़ सकती। फिर भी मुनश्य न जाने क्यों एक बेटा ही चहता है यह बेटी नहीं चाहता, क्योंकि वह अब भी एक बेटा और बेटी में फर्क समझता है, क्योंकि वह मानता है कि एक बेटा ही है जो उसके कुल को आगे बड़ा सकता है। बेटी क्या करेगी। वह बेटी के होने पर दु:ख करता है और बेटे के होने पर खुिशयां मनाता है पर ऐसा क्यो र्षोर्षो क्या एक बेटी होना पाप है र्षोर्षो क्या बेटी केा कभी भी वह दर्जा नहीं दिया जायेगा जो दजा्र एक बेटे को दिया जाता है। पर लोग ऐसा क्यो करते हैर्षोर्षो कि जब एक नारी मां बनने वाली होती है तो वह सोनोग्राफी करवाकर यह पता करती है कि एक लड़का है या लड़की, और जब उसे यह पता चलता है कि उसकी कोख में बेटा है तो वह खुिशयां मनाता हैऔर यदि बेटी है तो यह उसे मरवा देती है तब वह बेटी कहती है



गमो से हमारा नाता है - खुशी हमारे नसीब में कहां

कोई हमें पैदा कर प्यार करे - हम इतने खुश नसीब कहां



जब मां अपनी बच्ची को मारती है तो वह ये भूल जाती है कि वह भी बेटी थी उसने भी किसी की कोख से जन्म लिया होगा वह यह भूल जाती है ि कवह एक नारी है और नारी होकर अपनी बेटी को मार रही है। यदि इसी तरह लोग अपनी बेटी को मारते रहे तो इस पृथ्वी पर नये परिवारों की रचना खत्म हो जायेगी। क्योंकि एक नये परिवार की रचना बिना लड़की के सम्भव नहीं है और अगर इसी तरह भू्रण हत्या होती रही तो आगे क्या होगा ये सभी लोग समझ सकते है कि फिर क्या होगार्षोर्षो इस लिये हमें भू्रण हत्या पूरी तरह से बन्द करनी होगी और यह प्रयास करना होगा कि न हम अपनी बेटी को मारेगे और न ही किसी को बेटी मारने देगें। जिनके परिवार में बेटी है। उन्हें अपनी बेटी को एक बेटी से कम नहीं समझना चाहिए जिस घर में बेटी नहीं है उनसे पूछिये कि एक बेटी न होने का दर्द क्या होता है जब एक बेटी घर में हो तो उस घर में खुिशयों की कमी नहीं होती। आज एक बेटी किस प्रकार से एक बेटे से कम है वह किसी भी मोड़ पर एक बेटे से कम नहीं है आज ऐसा कौन सा काम है जो एक बेटा कर सकता है बेटी नहीं कर सकती। आज की लड़की पढ़ लिखकर घर से बाहर निकल रही है और एक बेटे के कन्धों से कन्धा मिलाकर चल रही है लड़की घर के काम कें साथ- साथ बाहर भी काम कर रही है और पैसा कमा रही है वह हर क्षेत्र में अपना पांव रखकर सफलता हासिल कर रही है। आज कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जहां पर एक लड़की ने अपनी दबदबा न बना कर रखा हो दिन पे दिन लड़कियां अपनी सफलता को हासिल करती हुई आगें बढ़ रही है। आज एक लड़की -लड़के की बराबरी करने में पीछे नहीं हैं आज हर लड़की अपने पांव पर खड़ी हो रही है। वह भी किसी के भरोसे पर रहना नहीं चाहती। इसलिए हमे अपनी सोच में बदलाव लाना चाहिये और यह सोचना है और निश्चय करना है कि बेटी हमारे घर का चिराग है उसे पैदा करे और उसे एक बेटे की तरह पढ़ा-लिखाकर आगे बढ़ाये। क्योंकि ाज एक बेटा अपनी शादी के बाद अपने मां-बाप को भूलाकर घर छोड़कर अगल रहने भी लगता है तब हम यह कर सकते है



कल तक घर की खुिशया था जो

आज हमें वह छोड़ गया

याद और खामोशी ऐसी उसकी

हम सबसे नाता तोड़ गया



पर एक बेटी अपने मां बाप को कभी नहीं भूलती वह अपने मां-बाप के उपकार याद रखती है वह बेटे की तरह अपने मां-बाप को नहीें भूलाती, और न ही उन्हें दु:ख देती है इसलिए जिनके यहां बेटी है वह अपनी बेटी में ही अपने बेटे को देखे और उसे अपने बेटे की तरह पाल पोसकर बड़ा करे और अपने बुड़ापे का सहारा बनाये। कुछ लोग ऐेसे भी होते है जो अपनी बेटी और बहू में भी फर्क करते है और उसे दहेज के लिए प्रताड़ित रकते है उसे मारते है और कुछ लोग तो अपनी बहू के लिये जलाकर भी मार देते है और यदि वह नहीं मारते तो वह स्वयं अपने आप को खत्म कर लेती है। जब एक लड़की अपने घर से शादी करके ससुराल जाती है-



हुये हावा पीले मेंहदी रचाई

बाबुल के घर से मिली है विदाई

तब उसे बाबुल से दुआ देकर उसकी विदाई करते है-

बाबुल की दुआयें लेती जा

जहां तुझकों सुखी संसार मिले

मायके की कभी न याद आये

ससुराल में इतना प्यार मिले



पर उसके बाबुल को क्या पता था जिस बेटी को उन्होंने इतनी नाजो से पाला -पोसकर बड़ा किया और उसे विदा किया ससुराल में जाकर उसे एक बेटी की तरह नहीं एक बहू की तरह ही रखा जायेगा अगर उसके दहेज मे थोड़ी भी कमी आ जाती है तो उसे हर वक्त परेशान किया जाता है उसे तिल-तिल कर मरने को कहां जाता है क्या वह सास यह नहीं सोचती ि कवह भी कभी बहू रही होगा। उसकी भी तो बेटी होगी अगर उसकी बेटी को भी इसी तरह मारा जाये परेशान किया जाये तो उसके दिल पर क्या बीतेगी।



यहां पर भीा एक बेटी और बहू यह सोचती है कि क्या मैने बेटी होने का पाप किया है र्षोर्षो क्या मुझे कभी भी वह प्यार नहीं दिया जायेगा जो लोग अपने बेटे को देते है। और बेटी भगवान से कहती है-



अब तो किये हो दाता आगे न की ज्यो

अगले जनम मोहे बिटियां न की ज्यो



इसलिये आप सभी से ये निवेदन है कि आप अपनी बेटी को जन्म लेने दे और अगर आपके घर में बहू आती है तो उसे अपनी बेटी की तरह ही रखे । अपनी बेटी और बहू में कोई फर्क न करे। जब हम ये सोचेगें तभी हम इन बुराईयों को दूर कर पायेगो। क्योंकि भू्रण हत्या, दहेज प्रथा दोनों ही बुराईयां समाज के लिए अभिशाप है ये दोनों ही समाज को बर्वाद कर देगे।
ओस की एक बून्द सी होती है बेटियां


स्पशZ खुरदरा हो तो रोती है बेटियां

रोशन करेगा बेटा तो एक ही कुल को

दो-दो कुल की लाज को ढोती है बेटियां

हीरा है अगर बेटा तो मोती है बेटियां

कांटों की राह पे ये खुद ही चलती रहेगी

और के लिये फूल ही बोती है बेटियां

विधि का विधान है यही दुनियां की रस्म है

मुठ्ठी में भरे नीर सी होती है बेटियां

नारी

नारी है एक पे्रम की मूरत।


भोली भाली जिसकी सूरत।।



हर एक कदम पर कश्ट उठाती।

लगती है प्रेम की परिपाती।।



पहले उससे शादी करते।

फिर उसको धोखा दे देते।।



अब क्या इसमें कमी आ गई।

क्या तेरी नियत बदल गई र्षोर्षो



फिर उसी को आदमी जिन्दा जलाते।

अपने लालच को दशाZते।।



पति की कई यातनायें सहती।

कभी कुछ न वो मुंह से कहती।।



आज भी न मिट सका दहेज का दानव।

इसी में फंसा है लालची मानव।।



हे. प्रभू! कुछ समझाओं इसको।

बन्द करो इस दहेज प्रथा को।।

Monday, February 1, 2010

सेक्स पर छूट मिलें

समलैगिंगता सवालों के कटघडे़ में खड़ी है। पहले इसे घृणा की दृिश्ट से देखा जाता था आज नज़रिया में परिवर्तन देखा गया है अधिकांश लोग इसमें सहमति दे रहे है कुछ खुलकर कुछ दबे मन से।

किसी ने यह देखा है बच्चे जब छोटे होते है उनमें भी इसी प्रकार के गुण दिखने को मिल जाते है जब वो आपने साथी के साथ खेलते है कुछ समय वितीत करते है या फिर अपने से बड़े या छोटे भाई के साथ भी, घर में , किसी खाली जगह पर यह करते है कुछ लोगों को इसकी आदत हो जाती है कुछ लोग इससे परे हो जाते है, लड़कियों के साथ भी ऐसा होता है। इस आदत से परे हो जाते है वो समलैगिंगता के दायरे से बाहर निकल जाते है जिसको इसकी लत लग जाती है वो समलैगिंग कहलाते है उनको इसकी आदत हो जाती है जैसे लड़की जब तक सेक्स नहीं करती इससे दूर रहती है एक बार सेक्स किया की वो इसकी आदी हो जाती है उसको सेक्स की दरकार बनी रहती है लड़कियां इस भावना को आसानी से छिपा लेती है लेकिन आंखें सब कुछ बायां करती है जिस्म की गर्मी जब सताती है और गर्मी नहीं बुझती तो वो आंखों में उतर आती है जो साफ तौर पर देखी जा सकती हैं।

समलैगिंक सम्बंध आज के दौर की उपज है इसका भी एक कारण है समाज में सेक्स करने पर प्रतिबंध। पहले के दशक में अपनी मर्जी से किसी के भी साथ सेक्स किया जा सकता था कोई प्रतिबंध नहीं था , ज्यों - ज्यों प्रतिबंध लगता गया , बलात्कार , और समलैगिंक जैसे मामलें में बहुत ज्यादा इजाफा हुआ है, यह बात सत्य है जिस काम के लिए प्रतिबंध लगाया जाता है इंसान वो काम ही करता है यदि उसकों छूट दे दी जाए तो उस काम को करने में अनाकानी करने लगता है। जब सेक्स आसानी से किया जाता था तब इस तरह की कोई घटना घटित नहीं होती थी अब क्या कहें हर जगह प्रतिबंध पे प्रतिबंध लगा हुआ है ये नहीं कर सकते वो नहीं कर सकते।

मेरे नज़रियें से तो सेक्स को छूट दे देनी चाहिए जिसको जिसके साथ सेक्स करना हो वो कर सकताा है पर इसमें कोई जोर जबदस्ती नहीं होनी चाहिए यदि दोनों सहमत है तो कोई बात नहीं वो समभोग कर सकते है। इससे महिलाओं के प्रति हो रही हिंसात्मक घटनाओं में गिरावट अवश्य आएगी ।

फस्ट हैण्ड होनी चाहिए

जिस तरह का बदलाव देखा जा रहा है उससे ताजुब जरूर होता है शायद टेलीविजन का प्रभाव कहें या पिश्चमी सभ्यता का हावी होना, टेलीविजन पर प्यार मोहब्बत की बातें , फिल्मों और एपिसोड में इश्क करते हुए दिखाया जाना इस परिवर्तन के जिम्मेदार हो सकते हैर्षोर्षो संचार क्रांाति के आने के बाद तो इसमें सबसे बड़ा परिवर्तन आया है सभी के पास मोबाइल हो गये है चाहे उसकी आवश्यकता उसको हो अथवा नहीं। 10 -12 साल के लड़के-लड़कियों को मोबाइल की क्या आवश्यता रहती है ये तो उन से अच्छा कोई दूसरा नहीं बता सकता। हमारे जमाने में तो घर में ही फोन की सुविधा नहीं थी आज तो सभी के पास मोबाइल है जिसे रखने में ये अपनी शान समझते है। 24घण्टों मोबाइल लोगों के हाथों में बना रहता है घर में रह जाए तो लगता है कुछ खास चीज रह गई जिसके बिना हमारा काम ही नहीं हो सकता। पहले तो ऐसा नहीं था आदमी बिन मोबाइल के भी अपने कार्य को बखुबी निभाते थे। एक बात और की मोबाइल झूठ कहने वाला उपकरण भी है यह हम सभी को झूठ बोलना सीखता है दूसरों को बेवकूफ बनाने के काम भी करवाता है लोगों को इस पर शक भी नहीं होता। उनकों विश्वास करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं रहता।

फिल्मों और टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले दृश्यों को देखकर सभी लोग सेक्स करना चाहते है चाहे लड़का हो या लड़की। वक्त के इस परिवर्तन ने उम्र की तमाम सीमाएं को तोड़ दिया है क्या 14 साल का लड़का- लड़की। वो भी सेक्स के बारे में जानने लगे है सेक्स का आंनद उठाने लगे है। लड़को का क्या है चल जाता है पर लड़कियां का क्या होता होगा, इतनी सी उम्र में सेक्स करना सीख जाते है, लड़कियां जिससे प्यार करती है उसे सब कुछ सौंप देती है अपना समझकर, पर लड़के ऐसा नहीं सोचते वो तो केवल इस्तेमाल करके छोड़ देते है यदि शादी की बात की जाए तो बहाने बनाते है नहीं तो कहते है कि लड़की फस्ट हैण्ड होनी चाहिए उसका किसी के साथ सम्बंध नहीं होना चाहिए, मैं तो एक बात कहूं कि जब तक लड़की की शादी नहीं होती वह फस्ट हैण्ड ही रहती है चाहे शादी के पहले कितनी बार सेक्स क्यों न कर ले। इसका एक उदाहरण किसी गाड़ी से लगाया जा सकताा है आदमी कोई गाड़ी को खरीदने किसी शोरूम जाता है तो गाड़ी को देखता है पसन्द करता है फिर खरीदता है शोरूम से वो गाड़ी जो खरीदता है वो फस्ट हैण्ड होती है चाहे उसकी टेस्ट डाइव कितने लोगों ने क्यों न किया हो, रहेगी फस्ट हैंड़। परन्तु लड़कें अपनी गिरेवान में झांककर नहीं देखते की वो क्या है क्या वो कुआंरे हैर्षोर्षो तो इसका जबाव किसी के पास नहीं होगा। खुद रावण है शादी के लिए सीता की आशा रखते है। ये तो वो ही बात हुई चित भी मेरी, पट भी मेरी, अन्टा मेरे बाप का।

Friday, January 29, 2010

नाच ना आवे आंगन टेड़ा

पिछले दो तीन दिनों से महात्मा गांधी अन्तर्राश्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की ख़बर कुछ ब्लॉग पर सुर्खियां बटोर ने काम कर रही है ख़बर पर लोग अपनी क्रिया-प्रतिक्रिया भी दे रहे है ब्लॉग के माध्यम से अनिल चमड़िया व उनके साथीगण अपनी भड़ास निकालने की पूरी कोिशश में लग हुए है उन्होनें तो कुलपति महोदय पर ही इंजाम लगाया कि वो मेरे पीछे पडे़ है शायद आप विश्व सुन्दरी या जाने माने किसी पार्टी के नेता या फिर चोर तो नहीं, जो वीएन राय उनके पीछे पड़े है अनिल चमड़िया के पीछे पडे़ रहने के अलावा शायद उनके पास और कोई काम नहीं है चमड़िया जी को यह अवश्य ज्ञात होगा कि उनको विश्वविद्यालय में कुलपति महोदय ही लेकर आए थे जब विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग में अध्यापकों का अभाव था और वो इस आस से उनकी नियुक्ति भी की थी कि वो छात्र-छात्राओं को पत्रकारिता के गुण सिखाएगें पर हुआ कुछ अलग हुआ वो अपनी एक कमेटी बनाते रहे, छात्रों को प्रशासन के खिलाफ भड़काने का काम करते रहे। उनके कुछ छात्र तो इतने अच्छे है जो कुलपति, प्रतिकुलपति, विभागाध्यक्ष, िशक्षकगण को गाली देने से भी नहीं चूकते। ये बात सभी के संज्ञान में है पर कहने वाला कोई नहींर्षोर्षो शायद यही िशक्षा आपने छात्रों को दी है दे भी रहे है कि अपने से बड़ों को गाली दें उनका अनादरण करें। बहुत अच्छा पाठ पढ़ाया है आपने।

अनिल चमड़िया जिस प्रकार का आरोप लगा रहे है यदि उन पर गौर फरमाया जाए तो दूध का दूध और पानी का पानी होने में जरा-सी देर भी नहीं लगेगी। आप वीएन राय पर आरोप लगा रहे है कि स्वजातीय लोगों की बातों में आकर आपकी नियुक्ति को निरस्त किया है यदि ऐसा ही है तो आप इतने माह तो इस विश्वविद्यालय में कैसे और किस आधार पर टीके रहेर्षोर्षो यदि जातिगत ही मामला है तो विश्वविद्यालय में आपकों भी पता होगा कि दलित छात्रों की संख्या कितनी है जहां तक पिछड़ा वर्ग और सामान्य वर्ग दोनों से तो ज्यादा ही होगी, और तो और कुछ विभाग तो ऐसे भी है जहां तो सामान्य वर्ग का एक भी छात्र नहीं है तो इसको आप क्या कहेगें दलितवादी निणर्यर्षोर्षो आप तो यहां तक भी कहते है कि यहां पढ़ रहे लड़कों के दबाव में आकर वीसी ने अपनी नियुक्ति की थी, कहीं ऐसा सुना है किसी विश्वविद्यालय के छात्रों के दबाव में आकर किसी की नियुक्ति हुई है तब तो छात्र यदि चाहेगें कि किसी आठ पास या पांचवी फेल को टीचर बना दिया जाए तो क्या वो टीचर बन जाएगा, चाहे उसने सम्बंधित फील्ड में कांट्रीव्यूशन क्यों न किया हो, विश्वविद्यालय में कर्मचारियों की नियुक्ति उसकी योग्यता के आधार पर वीसी या सम्बंधित नियुक्त कर सकते है पर किसी प्रोफेसर/रीडर/लैक्चरार को नियुक्त नहीं कर सकतार्षोर्षो जब तक वो टीचर बनने की पूर्ण योग्यता नहीं रखतार्षोर्षो यदि आपको लगाता है कि आप बिना डिग्रीधारक पैमाने पर फिट के आधार पर प्रोफेसर बनाये जाने चाहिए तो आपने मित्र और साथीगण जो अभी एम.ए. कर रहे है या फिर एम.फिल/पी-एचडी कर रहे है उनको भी सलाह दें कि वो पढ़ाई छोड़ दे न्तब भी वो प्रोफेसर बन जाएगेंर्षोर्षोर्षोर्षो मेरा यहा दो बार र्षोर्षोर्षोर्षो लगाने का तात्पर्य केवल इतना है कि सभी लोगों को पढ़ाई छोड़ देनी चाहिए इसमें मैं भी शामिल हूं क्योंकि मैंने भी बी.कॉम पास किया है मुझें पी-एचडी नहीं करनी चाहिए क्योंकि पी-एचडी में पूरे-पूरे दो तीन साल के बाद, तब भी संभावनाएं ही है कि टीचर बनूगां या नहीं, पर आप तो बिना डिग्री के पैमाना पूरा कर रहे है। रही बात अपनी बसी-बसाई गृहस्थी छोड़कर पराए शहर में आने की, यह तो धन का मोह ही है जब पैसे के खातिर इंसान अपना जिस्म, हत्या, चोरी-डकैती-लूटपात यहां तक की अपने मां-बाप को भी बेच देता है तब आपनी बसी-बसाई घर-गृहस्थी को छोड़कर आना कौन सी बड़ी बात हैै।

जिस एक्जीक्यूटिव कमेटी (ईसी) की बात आप कहे रहे है उसमें 18 सदस्य हैं और केवल 8 सदस्यों ने वीसी के कहने पर आपको निकाल दिया। यानि आपके कहने का मतलब यह भी है कि ईसी में जितने भी सदस्य है वो नासमझ/अज्ञान है सारा ज्ञान आप में कूट-कूटकर भरा हुआ है। आपका तो यहां तक कहना है कि वीएन राय के कामकाज के तरीके के कारण विश्णु नागर ने ईसी से इस्तीफा दे दिया है इसका तात्पर्य यह है कि कुलपति महोदय को आप से सीखना पडे़गा कि किस प्रकार काम किया जाता है तब तो वीएन राय जी को प्रोफेसर न बनाकर अपनी जगह कुलपति बनना चाहिएर्षोर्षो रही बात विश्णु नागर जी के इस्तीफे की कि किस कारण से उन्होंने ईसी से इस्तीफा दिया। ये तो उन से अच्छा और कोई नहीं बता सकतार्षोर्षो

विश्वविद्यालय में जिस प्रकार की गतिविधियां इस समय चल रही है यदि प्रशासन नेे जल्द ही कोई उचित कदम नहीं उठाए तो विश्वविद्यालय की गरिमा को घूमिल होने से कोई नहीं बचा सकता।

यह लेख किसी भावेश में आकर नहीं लिखा गया है जो देख रहा हंू दिख रहा है वो ही लिखा है , थोड़ा आप भी गौर कीजिए, मेरे हिसाब से तो पत्रकारिता किसी एक पक्ष को ध्यान में रखकर नहीं की जाती, जब तक दोनों पक्षों को सुन न लिया जाए तब तक अपने विचार नहीं देना चाहिए। मैंने अनिल चमड़िया के द्वारा लिखा लेख व वीएन राय दोनों के लेख पढ़कर ही यह लेख लिखा है।

ैीन्दप ेपदही

ैीन्दपेपदहीऋ125/लंीववण्पद

mirtue

mirtue ek satya hai , jo kabhi bhi apna rukh dikha sakti hai or ushe koi bhi rok nahi sakta?