Tuesday, March 9, 2010

गूंगा नहीं था मैं कि बोल नहीं सकता था


गूंगा नहीं था मैं कि बोल नहीं सकता था

जब मेरे स्कूल के मुझसे कई क्लास छोटे

बढे़गें से एक फार के लड़के ने मुझसे कहां

`` ओ-ओ मोरिय! ज्यादें विगडें मत ।

क्मीज कू पेंट में दवा के मत चल ´´

और मैनें चुपचाप अपनी कमीज

पैंट से बाहर निकाल ली थीं गूंगा नहीं था मैं

न अक्षम, अपाहिज था जड़ था

कि प्रतिवाद नहीं कर सकता थां उस लड़के को इस

अपमानजनक व्यवहार का लेकिन

अगर मैं बोल सकता जातीय अहं का सिहांसन डोल जाता

स्वर्ण छात्रों में जंगल की आग की तरह

यह बात फैल जाती कि ढे़ढ़ो का दिमाग चढ़ गया है

फिसल गया है कि एक चमार का लड़का

काफीपुरा के एक लड़के छोरे से अड़ गया है

आपसी मतभेदों को भुलाकर तुरन्त-फुरन्त स्कूल के

सारे स्वर्ण छात्र गोलबदं हो जाते और

ये ना अध्यापक ये होकिया ले -लेकर

दलित छात्रों पर हल्ला बोल देते

इस हल्ले में कई दलित छात्रों के

हाथ -पैर टुटते कई के सिर फूटते

और स्कूल परिसर के अन्दर

हगामा करने के जुर्म में

हम ही स्कूल से

रस्टीगेट कर दिये जाते।

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