Monday, March 15, 2010

सामाजिक सद्भाव की नगरी ललितपुर

 सामाजिक सद्भाव की नगरी ललितपुर में यूं तो सभी धर्मो के लोग आपसी भाई-चारा और प्रेम सौहार्द के अटूट बंधन में कुछ इस तरह बंधे है कि एक-दूसरे की छोटी-बड़ी िशकायतें आपस में कह सुनकर ही नज़रअन्दाज कर देते है। किसी भी धर्म के अनुयायी को दूसरे धर्म की आलोचना करने में झिझक ही नहीं गिलानी भी महसूस होती है क्योंकि उसे श्रृद्धा से मानने वाले हमारे ही बीच रहते है और हम सब भाई बंधु के रिस्ते में बंधे है। परन्तु हमारे बीच जब कभी कोई बड़ी वजह धर्म को लेकर प्रहार करने लगे तो निश्चय ही हम धर्म गुरूओं की शरण लेते आये है। यही तरीका भी है लेकिन जब कोई धर्म गुरू महात्मा ही आघात का कारण बन जाए तो कहां जाएं, किससे कहें, या घुटते रहे और बस घुटते रहें। जी हां मैं तुच्छ प्राणी उन महान् मुनियों को आरोपित करने पर मजबूर हुआ हूं जो मेरी भी अटूट श्रृद्धा के पात्र है मगर एक मात्र वजह उनका नगर में वेपर्दा भम्रण मुझे सामाजिक दृिश्ट से उचित नहीं लगता , किससे कहूं र्षोर्षो कौन हैर्षोर्षो जो समझायेगा इसे उचित समझने की तरकीब! मेरा ध्यान जाता है केवल मुनि श्री के चरणों में केवल वहीं मेरा मार्ग दशZन कर सकते है मगर मेरा सम्पूर्ण मनोविज्ञान मेरे प्रश्न को इतना गलत ठहराता है कि सीधा कहने की हिम्मत जुटा पाना शायद मेरे वश में नहीं। यही कारण है जो इसे इस तरह समाज के समक्ष व्यक्त कर रहा हूं। ऐसा नहीं है कि यह जिज्ञासा केवल मेरी ही है जनपद का शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसने इस विशय पर आज तक तर्क-वितर्क न किए हो। प्रतिदिन भ्रमण काल में स्वयं मुनि श्री ने भी इस जिज्ञासा को घुरती, शर्माती, या झुकती निगाहों में पढ़ा होगा। ऐसा मेरा अनुमान है अपनी जिज्ञासा को व्यक्त करने में कुतर्क करने की भूल कर सकता हूं। जिसे क्षमा करने की कृपा करें। मेरी जिज्ञासा सभी धर्म के अनुयायियों के समक्ष प्रस्तुत है। मुनि स्वरूप यदि जैसा है आवश्यक है तो क्या उनका नगर भ्रमण न होकर मन्दिर परिधि में सीमित नहीं रह सकता। क्योंकि नगर में सभी धर्मो के मानने वाले रहते है जबकि मन्दिर में तो केवल एक धर्म के ही अनुयायी उस समय होगें अथवा वह लोग होगें जो दशZन लाभ लेना चाहेगें। ऐसा सुना है कि उक्त स्वरूप के पूर्व मुनि श्री एक वस्त्र धारण की अवस्था में रहते थे। क्या सर्व समाज के हित में कुछ समय के लिए (केवल भ्रमण काल के वक़्त) पूर्व अवस्था में आना त्याग की परिभाशा में स्वीकार हो सकता है। उक्त निवेदनों के सापेक्ष मेरे तर्क जो शायद कुतर्क हो। यह है कि आज त्याग की पराकश्ठा पर कर चुके मुनि श्री या वर्ग विशेश के मेरे बंधु-बंाधवों का ध्यान क्या इस ओर गया है कि जब सब कुछ त्याग दिया फिर उदर पूर्ति में नगर की भीतरी सीमा ही आवश्यक क्यों र्षोर्षो या कीमती भवनों में प्रवेश वर्जित क्यों नहीं र्षोर्षो यदि इस का जबाव यह है कि उपरोक्त सब कुछ श्रृद्धालुओं की अनुनय विनय के कारण होता है न कि मुनि श्री की इच्छानुसार ,तो क्या यह विनय श्रृद्धालुओं की सीमित स्वार्थी सोच का दशZन नहीं कराती। और क्या अनुनय विनय में एक विनय और शामिल नहीं हो सकती, यदि ऐसा है तो न्याय धर्म गुरू ही कर सकते है। दूसरी बात में तर्क यह है कि यदि त्याग की पराकश्ठा की ओर अग्रसित मुनि श्री नगर सीमा में समाज कल्याण या प्राणी मात्र के कल्याण की भावना से ही आते है तो क्या एक वस्त्र धारण उनकी भावना को आहत कर सकता है।

मोह माया के संसार में “वास तो सभी ले रहे है फिर चाहें वह साधारण मनुश्य हो , अथवा विलक्षण प्रतिभा के धनी और लोक -परलोक की जानकारी प्राप्त मुनि श्री जब मायावी संसार में विरक्त भी रह सकते है और संासारिकता उनकी विरक्ति को क्षति ग्रस्त नहीं कर पाती तब तन पर वस्त्र हैं अथवा नहीं क्या फर्क पड़ता है। कहीं यह मात्र आकशZण में सहायक तो नहीं , ऐसा सुना है कि संसार में विपरीत का आकशZण है जैसे चुम्बक के विपरीत दो सिरे ही परस्पर आकर्शित होते है सामान सिरों को यदि पास में लाया जाता है तो प्रति कर्शित ही होते है इसी प्रकार संसार में विपरीत लिंग का आकशZण है इसी क्रम में कहीं कपड़े के व्यापारी और वस्त्र विहीन मुनि श्री का आकशZण तो नहीं । वाणी की अति किसी तपस्वी को रूश्ट न कर दें इसलिए क्षमा चहता हूं। मेरे तकोZ पर मनन और चिन्तन से अन्तत: लाभ की ही संभावना है यदि मेरी बातें सत्यता के ओत-प्रोत है तो सर्व समाज की कुंठा शान्त होगी। और यदि ऐसा नहीं तो सर्व समाज कि कुंठा का मुनि श्री अपनी ज्ञान ऊर्जा से समाधान करें ऐसी मेरी प्रार्थना है।

यह तो सभी ने जाना और समझा है कि मुनि श्री किसी वर्ग विशेश के लिए नहीं है अभी हाल में उन्होंने सभी समाज से कुछ अपीले कि थी जिसका सर्व समाज ने पूरे मन से आदर किया था और बहुतों ने उन कल्याणकारी प्रस्तावों को आत्मसात भी किया , तो क्या सर्व समाज की एक प्रार्थना मुनि श्री स्वीकार नहीं करेगें।

जब एक समाज विशेश के लोग मांसाहार जो उनके लिए खाद्य श्रृंखला है को गलत मान सकते है और इसे सिद्व किया जा सकता है




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