Tuesday, March 9, 2010

5 दिसम्बर 1931 को डां0 अम्बेडकर लन्दन से अमेरिका गए। वहां से वह 29 जनवरी 1932 को स्वदेश लौटे

डां0 अम्बेडकर की शायद पहली जीत थी क्योंकि जिस उदद्ेश्य को पूरा करने के लिए उन्होंने संघशZ किया, वह पूरा हो गया। अछूतों को भी वे अधिकार प्राप्त हो गए थे जो सवणोZ को प्राप्त थे।

ऐसा ही चाहते थे डां0 अम्बेडकर और उन्होने जो चाहा था वह उन्हें मिल गया। उस दिन उनसे हजारों नहीं लाखों दलित लोग मिलने आए। डां0 साहब सभी से गले मिले। कोई ऐसा अछूत नहीं था जिसने डां0 साहब से मिलकर अपना हदय नहीं जोड़ा था। परन्तु डां0 साहब थे कि उनकी आंखों में आंसू छलछला आए थे। कुछ लोगों ने कहा - वे पे्रम के आंसू थे, और कुछ बोले वे विजय के आंसू थे।
20 सितम्बर , 1932 को गांधी ने भूख हड़ताल कर दी। इससे सारा देश चिन्ता में डूब गया । बात छोटी थी और बड़ी भी। सचमुच यह बिडम्बना थी कि गांधी जैसे महापुरूश जो अछूतों और दलितों में उत्थान का कार्य कर रहे थे, वे भी अछूतों को अलग प्रतिनिधित्व की खिलाफत कर रहे थे।
इतना हि नहीं, उन्होंने ब्रिटिश प्रधानमन्त्री को धमकी भरा पत्र भी लिखा- यदि अछूतों के उक्त अधिकार जा ब्रिटिश प्रधानमन्त्री ने दिये है, वापस नहीं लिये गए तो मैं तब तक अनशन करता रहूंगा जब तक उक्त अधिकार वापस नहीं लिए जाते।
परन्तु डां0 साहब अपने विचारों पर दृढ़ थे। उन्होंने अपार जनता के सामने दो दूक शैली में सिंह की सी गर्जना करते हुए कहा गांधी जी के प्राणों को बचाने की हर सम्भव कोिशश की जानी चाहिए। पर मुझसे यह आशा न रखी जाए कि मैं दलितों और अछूतों के हित को छोड़ दूंगा। गांधी को अपनी बात याद करनी चाहिए। पूना समझौते में उन्होने स्वयं अछूतों को अलग से प्रतिनिधित्व दिए जाने का समर्थन किया था, फिर यह विरोध क्यों किया जा रहा हैर्षोर्षो अलग से प्रतिनिधित्व मिल जाने पर सारे अछूत हिन्दू धर्म के अडग ही नहीं बने रहेगे, इसमें जरा सी भी शंका करने की बात नहीं।
डां0 अम्बेडकर के शब्द बिल्कुल स्पश्ट थे। परन्तु कांग्रेसी नेताओं को नहीं जंच रहे थे। वे गांधी के मन की बात न समझौते हुए भी उनके स्वर से स्वर मिलाना चाहते थें अत: 20 सितम्बर 1932 को एक घिनौने नाटक खेलने का प्रसास किया गया। यह दिखाने का प्रयास किया गया कि गांधी और कांग्रेस को अलग से अछूतों के लिए प्रतिनिधित्व देने पर आपत्ति है। पर सुरक्षित स्थान देने पर तैयार है।
डां0 अम्बेडकर के एक विश्वसनीय व्यक्ति ने यह खबर डां0 साहब तक पहुंचाई। सुनकर डां0 साहब के कनपटे लाल हो गये। उन्होंने हुंकार भरते हुए कहा`- इस नाटक का चाहे में खलनायक समझा जाऊं, लेकिन जिस बात को मैं अछूतों के हित में समझता हूं। उससे टस से मस नहीं हो सकता। उसे मैं नहीं छोड़ सकता।
घड़ी बहुत निकट थी। स्थिति ऐसे मोड़ पर आकर खड़ी हो गई थी जिसे बहुत नाजुक कहा जा सकता था। अब चारों ओर से गांधी जी के प्राणों की रक्षा के लिए डां0 साहब पर दबाव डाला जाने लगा। डां0 साहब बडे़ धर्म संकट में पड़ गए- जिन अछूतों के हित के लिए उन्होंने इतना बड़ा काम किया है, उसे वे अपने हाथों किसी प्रकार वापस लेर्षोर्षो यदि वे देर करते है तो गांधी के प्राण संकट में पड़ सकते हैर्षोर्षो
देश में एक प्रकार से दोहरा शासन होने लगा । महाराश्ट्र में तो कांग्रेसी और अंग्रेजी शासकों के कारण मिल मालिक मजदूरों पर अत्याचार करने लगे। मजदूरों ने इसके विरोध में जगह-जगह पर गोिश्ठयां कीं, परन्तु उनकी सुनने वाला कौन था र्षोर्षो अन्त में वे डां0 अम्बेडकर की शरण में पहुंचे । मजदूरों ने उनसे कहा- डाक्टर साहब , ये अंग्रेज और कांग्रेसी तो हमें मिटाकर छोडेंगे। हमारे ऊपर अत्याचार , शोशण और दमन के कोडे बरसते जा रहे है। आप मिल मालिकों के विरूद्ध कदम उठाइये। हम सब आपके साथ है।
मिलों में कुछ पद ऐसे थे जिन पर अछूतों की नियुक्ति नहीं हो पाती थी। इतना ही नहीं अछूतों को रेलवे-स्टेशन पर कुली तक बनने नहीं दिया जाता था। यदि कोई अछूत सामान उठाता पाया जाता था तो उसकी खाल उधेड़ दी जाती थी। उसे दो-दो बून्द पानी तक के लिए तरसाया जाता था।
एक दिन ऐसा अवश्य आयेगा जब अछूत कहे जाने वाले व्यक्ति ऊंची कुर्सी पर बैठेगें और सवर्ण उनकी बातों को स्वीकार करेंगे। कौन कहता है कि अछूत का पलड़ा कमजोर हेर्षोर्षो कौन नहीं जानता है कि जिन्हें हम अछूत कहते है वे हमारे ही अंग हैर्षोर्षो क्या कोई अपने शरीर से किसी एक अंग को काटकर फेंक देता है र्षोर्षो जातीयता की उनकी परिकल्पना बड़ी विराट थी।
जब कभी डां0 अम्बेडकर अछूतों और दलितों की बात करते थे तो सवर्ण हिन्दूओं की आंखों से चिनगारियां छूटने लगती थी। वे ढेले उठाते और डां0 साहब की ओर उछाल देते थे। उस घायल अवस्था में भी डां0 अम्बेडकर साहब के मुंह से कराह नहीं फूटती थी। उलटे वे उनसे कहते थे- `इन पत्थरों में मेरी नहीं तुम्हारी पराजय छिपी हुई है। जिन पत्थरों से तुम मुझे घायल कर रहे हो, एक दिन उन्हीं को उठाकर आंखों से लगाओगे।
डां0 साहब ने ऐसे समय में अपना संघशZ शुरू किया था, जब अछूतोद्वार की सारी संभावनाये समाप्त हो चुकी थी। बड़ों-बड़ों के पैर डगमगाने लगे थे। विश्वास टूटकर आकाश में चला गया था और साहस धरती में गढ चुका था। परन्तु यह डाक्टर अम्बेडकर ही थे, जिन्होंने कांटेदार झांड़ियों , अडंगेदार मार्गो और बड़ी-बड़ी अडचनों को पार किया । वह अछूतों के अधिकारों की मशाल लेकर आगे ही बढ़ते रहे। इस मशाल से उन्होंने अछूतों के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक और शैक्षिक दीपों को प्रज्वलित किया। जिस समय वे दीप से दीप जलाते थे तो लोग उनकी लगन और भक्ति को तोज्जुब से देखते थे। उनके जलाए हुए दीपक आज तक जल रहे हैं, लोगों के हदयों में तो रोशनी जल रही हैं, बड़े-बडे़ नेतागण भी उस प्रकाश को बुझाने का साहस नहीं कर सके हैं।
किसी समय करोड़ों की संख्या में ये धरती पुत्र बस्ती से बाहर टूटी फूटी झोंपड़ियों में दु:ख से भरपूर नारकीय जीवन बिताते थे। अधिक मेहनत के बाद भी उन्हें दो जून भरपेट रोटी और साग नसीब नहीं होता था।
उन्हें कदम-कदम पर प्रताड़ना , उत्पीडन, दुत्कार और तिरश्कार मिलता था। उनकों दबी हुई, कुचली हुई अमानवीय जिन्दगी बितानी पड़ती थी। पति दिन भर मेहनत करने के बाद झोंपड़ी में घुसता तो उसे पता चलता कि पत्नी जमीन्दार के घर जूठन बटोरने गई है। उसका बालक िढबरी की धुआं भरी रोशनी में भूखा पड़ा होता। झोंपड़ी में मिट्टी का एक घड़ा , अलुमिनियम के दो चार बर्तन, टूटी-फूटी एक अदद खाट- यही सब धरोहर दिखाई देती, उस मजदूर को , जो दिनभर खून पसीना बहाकर घर में घुसता था। कभी-कभी तो उस दलित को , इससे भी कठिन परीक्षा का सामना करना पड़ता। वह अपने तीन चार वशZ के बेटे से पूछता- ` मां कहां गई तेरी र्षोर्षो बेटा जबाव देता-` जमीन्दार उसे उठाकर ले गया है।´
जब बात पुन: शूद्रों पर आ गई है तो मैं यही कहना चाहता हूंं कि शूद्र आर्यो की जाति से हैं। किसी समय में आर्य जाति में तीन वर्णव थे- ब्राहमण, क्षत्रिय और वैश्व। शूद्रों का चौथा वर्ण नहीं था। वे भारतीय आर्यो के क्षत्रिय वर्ण के आर्य थे। शूद्रों और ब्राहमण में बराबर लड़ाई रही और ब्राहमणों पर शूद्रों ने बहुत अत्याचार किए। ब्राहमणों ने शूद्रों के अत्याचार से तंग आकर और द्वेश भाव से शूद्र क्षत्रि-यत्व से गिरकर वैश्व वर्ण के नीचे एक चौथा वर्ण बन गया। इस सिद्वान्त पर विद्वानों के मत की उपेक्षा करनी चाहिए। यह सिद्वान्त मेरा मौखिक है और प्रचलित सिद्वान्त के विरोध में है। मेरा सिद्वान्त कहां तक ठीक है, यह उन पर निर्भर है जो विशय पर निर्णय कर सकते हैं। यदि समालोचक सच्चा है तो मुझे आशा है कि मेरा मत मान लेगा। कम से कम यह सच्चा कहेगा कि यह नया दृिश्टकोण है।

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