Tuesday, March 9, 2010

इन सवणोZ के अत्याचार को रोकने में बहुत हद तक डां0 अम्बेडकर साहब ने प्रयत्न किये



अम्बेडकर का जन्म सामाजिक रूप से दलित कहे जाने वाली जाति में हुआ था। उन्होंने पिश्चमी तज़Z पर तालीम हासिल की। उनका नज़रिया बेहद तािर्कक मगर मिज़ाज एकदम विद्रोही था। उन्होंने समाज के उस तबके को कुशल नेतृत्व प्रदान किया जो सदियों से अभिशप्त था। शूद्र कहलाया जाता था। परहेज किया जाता था, उनके स्पशZ से उनकी परछाई से। यहां तक कि उनके मुंह से निकले बोल भी अशुभ समझे जाते थे। इस अछूत समुदाय को तत्कालीन वर्ण व्यवस्था और राजशाही ने कितना उत्पीड़ित किया होगा, इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि शूद्रों को पशु पालने और कुछ विशेश धातुओं के आभूशण तक पहनने से रोका जाता था। वे नाइयों और धोबियों की सेवाएं भी नहीं ले सकते थ। जब सार्वजनिक कुओं , तालाबोें और स्कूलों तक शूद्रों की पहुंच नहीं थी, तो मिन्दरों की बात ही क्या की जाए। स्थिति यह थी कि शूद्र थे तो भारतीय, पर वे भारत की सांस्कृतिक विरासत का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते थे। पृथकीकरण ने उनको सामाजिक रूप से मजलूम, आर्थिक रूप से मजबूर और राजनीतिक रूप से महकूम बना कर रखा था। वे लोक सेवाओं में विशेशकर प्रशासन, पुलिस और सेना में भर्ती नहीं किए जाते थे। लिहाजा घूम फिरकर उनकों अपने पैतृक पेशे पर ही सन्तोश करना पड़ता था। यानी एक दलित जिस हाल में पैदा होता , उसी हाल में मर जाता। इसी हाल में अनेक पीढ़ियां आत्म सम्मान पाने और अपनी हालत में सुधार की तमन्ना लिए दुनियां से विदा होती थी। ऐसी मुिश्कल परिस्थितियों में दलित समाज को अपने अभ्युत्थान के लिए किसी ऐसे मसीहा की जरूरत थी। जो उनकी आंख , जुबान और लाठी बन सके।

अम्बेडकर ने दलित समाज को ऐसे ही मोड़ पर करिश्माई नेतृत्व प्रदान कर इस कमी को पूरा किया, क्योंकि उनसे पहले जाति विरोधी आन्दोलन मुख्य रूप से दलित कल्याण पर ही केिन्द्रत था। मगर अम्बेडकर ने इसका नाकाफी समझते हुए इस बात पर बल दिया कि सामिाजक व्यवस्था में परिवर्तन तभी ला सकते हैं। जब दलित समुदायों को भी बराबर के राजनीतिक अधिकार प्राप्त हों। इस प्रकार पहली बार अम्बेडकर ने छुआछूत की समस्या और अछूतों के लिए राजनीतिक अधिकारों को मुख्य कार्यसूची में शमिल किया था। अम्बेडकर ने भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान यह महसूस कर लिया था कि ब्रिटिश राज के खात्मे के बाद कम से कम राजशाही या सामन्तशाही सत्ता के रूप में पुनस्Zथापित नहीं हो सकेगी और ऐसा हुआ भी। जब राश्ट्र स्वतन्त्र हुआ तो हमने लोकतन्त्र केा चुना। लोकतन्त्र को स्थापित करना बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य था, क्योंकि समाज कुनबों -कबीलों , जाति-बिरादरियों और अनेक पन्थ -सम्प्रदायों में बंटा हुआ था। ऐसा समाज लोकतन्त्र को सिर्फ ढो ही सकता था। बिना सामाजिक न्याय के लोकतन्त्र अपने मकसद को नहीं पा सकता था, क्योंकि जिस चीज पर लोकतन्त्र की बुनियाद टिकी है वह हमारे पा बिल्कुल नहीं थी, यानी कि सामाजिक समरसता। इन परिस्थितियों में एक नव स्वतन्त्र राश्ट्र राज्य के रूप में स्थापित करना टेढ़ी खीर साबित होता। इन्हीं संभावनाओं के मद्देनज़र अम्बेडकर ने अपना सारा जीवन सामाजिक न्याय की स्थापना करने के प्रयास में खपा दिया। ऐसा करके एक और जहां उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से दलित समाज को आत्म सम्मान दिलाने का मौका दिलाया तो परोक्ष रूप से वर्ण व्यवस्था के निर्देशन तले चलने वाली प्रजातान्त्रिक व्यवस्था को टूटने से भी बचाया। अम्बेडकर ने सामाजिक न्याय से जुड़े हर पहलू पर गम्भीर चिन्तन किया।

डां. अम्बेडकर अपने पूरे जीवन काल में दलित मुक्ति को लेकर संघशZरत रहे। वे सामाजिक विचारों में वह स्वतन्त्रता , समानता और बंधुत्व के जबरदस्त हिमायती थे। यह स्वतन्त्रता, समानता और बंधुत्व पूरी इन्सानियत के लिए संप्रेशणीय बने, और उनकी जिन्दगी का आधार बने, ऐसा वह चाहते थे। इससे दलित जातियां भी इन मूल्यों का स्वाद चख सकेंगी और सदियों से पड़ी उन पर गुलामी की चादरें धीर-धीरे कटती जाएंगी। आर्थिक विचारों में वह पूर्ण राश्ट्रीयकरण के हिमायती थे। वह चाहते थे कि सारे उद्योग तथा सारी खेती किसानी सरकारी क्षेत्र में नियन्त्रित रहे। सरकार श्रमिकों और अधिकारियों की नियुक्ति करे। इसका तत्काल फायदा दलित जातियों को ही ज्यादा मिलता क्योंकि वे ही सदियों से श्रम-व्यवस्था से जुड़े थे। कृशि कार्यो और उद्योग जगत को मिलाकर वह एक बड़े श्रमिक वर्ग का निर्माण करना चाहते थे, जिससे सामन्ती तथा पूंजीवादी तत्व नश्ट हो जाएं। इससे स्वाभाविक रूप से, सामाजिक स्तर पर ब्राह्मणवादी परांपरा भी ध्वस्त होती। जब खेती व उद्योगों में एक साथ ब्राह्मण व दलित श्रमिक बनकर काम करेंगे तो दोनों के बीच मंआ एक वणीZय मैत्री का विकास हो जाएगा। वेतन की समानता वर्गीय चेतना पैदा कर देती है। दुर्भाग्यवश उनके आर्थिक विचारों को उतना महत्व नहीं मिल सका। सामाजिक विचारों को तो उन्होंने भारतीय संविधान में समाहित करा लिया था किन्तु आर्थिक विचारों को संविधान में नहीं जोड़ पाए।





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